
संदीप मौर्य✍️
मैं जीएसटी हूँ। हाँ, वही वस्तु एवं सेवा कर, जिसकी चर्चा संसद से लेकर सब्ज़ी मंडी तक होती है। सरकार जब मुझे सस्ता करने की घोषणा करती है तो ऐसा लगता है मानो जनता को अचानक से कोई त्यौहार का तोहफ़ा मिल गया हो।
लोग तालियाँ बजाते हैं, टीवी चैनल ब्रेकिंग न्यूज़ चलाते हैं, नेता कहते हैं—“देखो, हमने जनता को बड़ी राहत दी।” लेकिन मैं चुपचाप मुस्कुराता रहता हूँ। क्योंकि मुझे पता है, मेरे सस्ता होने के बाद भी बाज़ार में आलू-प्याज़, दाल-चावल और पेट्रोल का दाम अपनी मर्जी से ही तय होता है। दुकानदार मुझे सस्ती होने पर भी महंगे दाम में बेचते हैं, और जनता को समझाते हैं—“भैया, जीएसटी तो कम हो गई, पर माल का रेट बढ़ गया।”
मेरे नाम पर राजनीति होती है। कोई कहता है—“जीएसटी घटा दी, आम आदमी को फायदा मिलेगा।” लेकिन आम आदमी कहता है—“फायदा तो बस अख़बार की सुर्खियों में है, जेब में नहीं।”
मैं सोचता हूँ, अगर मैं सचमुच सस्ता हो भी जाऊँ तो क्या फर्क पड़ता है? महंगाई तो हर हाल में जनता का पीछा करती है। सब्ज़ी मंडी में जाने वाला गरीब आदमी मुझसे नहीं, प्याज़ की कीमत से डरता है। दवा खरीदने वाला मुझसे नहीं, मेडिकल की बिल से काँपता है।
फिर भी मैं महान हूँ। क्योंकि जब भी सरकार को जनता को खुश करना होता है, मुझे थोड़ा-सा कम कर दिया जाता है। मैं आत्मसंतुष्ट होकर सोचता हूँ—“वाह! आज भी मैं राजनीतिक चमक-दमक का हिस्सा बना हूँ।”
असलियत यह है कि मैं सस्ता होकर भी जनता को महंगा ही पड़ता हूँ। पर क्या करूँ, मैं तो जीएसटी हूँ—सरकारी राहत का वह आईना, जिसमें जनता को बस अपना टेढ़ा-मेढ़ा चेहरा ही दिखता है।